आत्मा की संवेदनशीलता

बबन प्रसाद मिश्र
अध्यक्ष, बख्शी सृजन पीठ,
भिलाई

ढल रही दोपहर में एक ‘एक नई पूरी न सुबह’ कृति पर कुछ भी कहने के या अपनी टिप्पणी के मैं श्री विश्वरंजन को अपने आयुषाधिक्य के अधिकार से यह स्नेहिल आशीष और शुभकामना देना चाहूँगा कि उनकी 49 कविताओं, आलेखों या साक्षात्कारों और पाँच मूल्याँकनों का उनका यह ऐश्वर्य इस प्रकाश-पर्व की सुसंधि एवं सुगंधित उत्सवबेला का सुख निरंतर अग्रगामी रहे ।

विश्वरंजन जी, अनथक, अविश्रांत कालजयी रचनाओं के लिए आपका व्यक्तित्व समर्पित रहे और आपके कृतित्व को सतत साहित्य और साहित्येतर क्षेत्र में कीर्ति मिलती रहे । आपका हार्दिक अभिनंदन !

आपकी कृति का फ़्लैप वरिष्ठ आलोचक श्री बद्रीनारायण सिंह के आपकी रचना-कृतियों के प्रति उद्भूत यथार्थदर्शक भावों से जुड़ा है । यद्यपि आपकी समग्र कृतियों के शब्द-सौष्ठव का विविध पुष्पों के उपवन-सा उभरा सौंदर्य शब्दातीत है, फिर भी आपकी इस कृति की पहली कविता ‘तुम ग़लत कहती हो, मैं तुम्हारा वही मुन्ना नहीं हूँ माँ’ ने मेरे अंतस को, मेरे भावुक मन को हिलाकर रख दिया । सच कहूँ कुछ क्षणों के लिए न तो कुछ सोच सका, न लिख ही सका ।

माँ पर आपकी अभिव्यक्ति में मैं भावना का वह ठहराव भी देखता हूँ जो हर उस भावुक मन को माँ की ऊँचाईयों की अनुभूति सतत् कराता रहता है । रूस के महान् लेखक मैक्सिम गोर्की की कृति भले ही स्वतंत्रता और मानवाधिकार से जुड़ी हो माँ के मर्मस्पर्शी विवरण ने ही उसे अमरता दी । आपकी कृतियों में प्रदीप्त काव्य-प्रकाश विविध नीलाभ, रक्ताभ, पीताभ स्वरूपों में रश्मि बिखेर रहा है । इस कृति का अवलोकन मेरे द्वारा अभी विंहगावलोकन रहा है, सिंहावलोकन शेष है ।

आपके व्यक्तित्व से पुलिस शब्द जुड़ा है । इसके साथ अफ़सरी भी जुड़ी है । बहुत लम्बे कालखंड से ये दोनों शब्द सहज रूप में भय निर्मित करने वाले रहे हैं किन्तु श्री बद्रीनारायण सिंह ने यह सटीक टिप्पणी की है कि प्रासंगिकता की अनुभूति कविता में इतनी गहरी है कि रूढ़ियों का दबाब छँटता चला गया है । इसके पूर्व उनकी यह टीप विशेष रूप से आपके कवि-व्यक्तित्व को रेखाँकित करती है कि उनकी यानी विश्वरंजन की संवेदनशील रागात्मकता को इतिहास और संस्कृति का पोषण मिला है ।
कविता ‘रात की बात’ में आपने इसी संवेदशनशीलता को उकेरा है –

बहुत अंदर छुपा पड़ा हादसों का आंतक
एक जादू-सा जग पड़ता है सहसा
और रात की परछाईयों के साथ करता है नृत्य
एक सूखी बच्ची फिर से रोती है
एक नंगी और और सिकुड़ जाती है पुलिस के नीचे
मंगरू का बूढ़ा बाप चीखता है और
खाँसता है एक तपेदिक खाँसी

यह है आत्मा की संवेदनशीलता । इसे महसूसा था कभी अरविंद ने और विवेकानंद ने।

काव्यकृति शब्दों के बाबत् में कवि अँधेरों और उजालों के बीच शब्दों के काफ़िले संकरे रास्तों से गुज़ारता है । विश्वरंजन की यह अभिव्यक्ति नये प्रश्न और नये अर्थ ढूँढते बुनियादी को हिलाने वाले प्रश्न और अर्थ ढूँढती है । अवसरी में लोहबान जलाना हो, उसकी महक में ज़िंदगी की जड़े देखना हो तो मैं फिर से नया लोहबान जलाता हूँ । रचना ज़रूर पढ़ें । उजाले के त्यौहार के इसी दौर में एक कविता ‘अँधेरे से लड़ने के लिए स्वप्न होना बेहद ज़रूरी है’ जीवन संघर्ष की अधखुली ख़िड़की से बहुत कुछ दिखलाती है ।

बस्स मैंने विश्वरंजन की 6 कविताएँ ही अभी पढ़ी हैं, फिर कभी अवसर मिला तो शेष कृतियों पर कुछ कहूँगा ।

और एक बार फिर श्री विश्वरंजन से जिन मानव-मूल्यों को ईश्वर ने आपको ऐसी ऊँचाईयों की उपलब्धि सेवा और साहित्य के क्षेत्र में दी हैं, उसे आकाशीय और क्षितिज को ओर-छोर विस्तारित करते रहें । आपकी जीवन-यात्रा और आपकी संवेदनशीलता, आपका काव्य-कलश, यश से भरपूर रहे ।